Monday, February 17, 2020

Vikram aur betaal ki kahani

*विक्रम और बेताल*
बहुत पुरानी बात है। धारा नगरी में गंधर्वसेन नाम का एक राजा राज करते थे। उसके चार रानियाँ थीं। उनके छ: लड़के थे जो सब-के-सब बड़े ही चतुर और बलवान थे। संयोग से एक दिन राजा की मृत्यु हो गई और उनकी जगह उनका बड़ा बेटा शंख गद्दी पर बैठा। उसने कुछ दिन राज किया, लेकिन छोटे भाई विक्रम ने उसे मार डाला और स्वयं राजा बन बैठा। उसका राज्य दिनोंदिन बढ़ता गया और वह सारे जम्बूद्वीप का राजा बन बैठा। एक दिन उसके मन में आया कि उसे घूमकर सैर करनी चाहिए और जिन देशों के नाम उसने सुने हैं, उन्हें देखना चाहिए। सो वह गद्दी अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर, योगी बन कर, राज्य से निकल पड़ा।

उस नगर में एक ब्राह्मण तपस्या करता था। एक दिन देवता ने प्रसन्न होकर उसे एक फल दिया और कहा कि इसे जो भी खायेगा, वह अमर हो जायेगा। ब्रह्मण ने वह फल लाकर अपनी पत्नी को दिया और देवता की बात भी बता दी। ब्राह्मणी बोली, “हम अमर होकर क्या करेंगे? हमेशा भीख माँगते रहेंगें। इससे तो मरना ही अच्छा है। तुम इस फल को ले जाकर राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ।”

यह सुनकर ब्राह्मण फल लेकर राजा भर्तृहरि के पास गया और सारा हाल कह सुनाया। भर्तृहरि ने फल ले लिया और ब्राह्मण को एक लाख रुपये देकर विदा कर दिया। भर्तृहरि अपनी एक रानी को बहुत चाहता था। उसने महल में जाकर वह फल उसी को दे दिया। रानी की मित्रता शहर-कोतवाल से थी। उसने वह फल कोतवाल को दे दिया। कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। वह उस फल को उस वेश्या को दे आया। वेश्या ने सोचा कि यह फल तो राजा को खाना चाहिए। वह उसे लेकर राजा भर्तृहरि के पास गई और उसे दे दिया। भर्तृहरि ने उसे बहुत-सा धन दिया; लेकिन जब उसने फल को अच्छी तरह से देखा तो पहचान लिया। उसे बड़ी चोट लगी, पर उसने किसी से कुछ कहा नहीं। उसने महल में जाकर रानी से पूछा कि तुमने उस फल का क्या किया। रानी ने कहा, “मैंने उसे खा लिया।” राजा ने वह फल निकालकर दिखा दिया। रानी घबरा गयी और उसने सारी बात सच-सच कह दी। भर्तृहरि ने पता लगाया तो उसे पूरी बात ठीक-ठीक मालूम हो गयी। वह बहुत दु:खी हुआ। उसने सोचा, यह दुनिया माया-जाल है। इसमें अपना कोई नहीं। वह फल लेकर बाहर आया और उसे धुलवाकर स्वयं खा लिया। फिर राजपाट छोड, योगी का भेस बना, जंगल में तपस्या करने चला गया।

भर्तृहरि के जंगल में चले जाने से विक्रम की गद्दी सूनी हो गयी। जब राजा इन्द्र को यह समाचार मिला तो उन्होंने एक देव को धारा नगरी की रखवाली के लिए भेज दिया। वह रात-दिन वहीं रहने लगा।

भर्तृहरि के राजपाट छोड़कर वन में चले जाने की बात विक्रम को मालूम हुई तो वह लौटकर अपने देश में आया। आधी रात का समय था। जब वह नगर में घुसने लगा तो देव ने उसे रोका। राजा ने कहा, “मैं विक्रम हूँ। यह मेरा राज है। तुम रोकने वाले कौन होते होते?”

देव बोला, “मुझे राजा इन्द्र ने इस नगर की चौकसी के लिए भेजा है। तुम सच्चे राजा विक्रम हो तो आओ, पहले मुझसे लड़ो।”

दोनों में लड़ाई हुई। राजा ने ज़रा-सी देर में देव को पछाड़ दिया। तब देव बोला, “हे राजन्! तुमने मुझे हरा दिया। मैं तुम्हें जीवन-दान देता हूँ।”

इसके बाद देव ने कहा, “राजन्, एक नगर और एक नक्षत्र में तुम तीन आदमी पैदा हुए थे। तुमने राजा के घर में जन्म लिया, दूसरे ने तेली के और तीसरे ने कुम्हार के। तुम यहाँ का राज करते हो, तेली पाताल का राज करता था। कुम्हार ने योग साधकर तेली को मारकर शम्शान में पिशाच बना सिरस के पेड़ से लटका दिया है। अब वह तुम्हें मारने की फिराक में है। उससे सावधान रहना।”

इतना कहकर देव चला गया और राजा महल में आ गया। राजा को वापस आया देख सबको बड़ी खुशी हुई। नगर में आनन्द मनाया गया। राजा फिर राज करने लगा।

एक दिन की बात है कि शान्तिशील नाम का एक योगी राजा के पास दरबार में आया और उसे एक फल देकर चला गया। राजा को आशंका हुई कि देव ने जिस आदमी को बताया था, कहीं यह वही तो नहीं है! यह सोच उसने फल नहीं खाया, भण्डारी को दे दिया। योगी आता और राजा को एक फल दे जाता।

संयोग से एक दिन राजा अपना अस्तबल देखने गया था। योगी वहीं पहुँच और फल राजा के हाथ में दे दिया। राजा ने उसे उछाला तो वह हाथ से छूटकर धरती पर गिर पड़ा। उसी समय एक बन्दर ने झपटकर उसे उठा लिया और तोड़ डाला। उसमें से एक लाल निकला, जिसकी चमक से सबकी आँखें चौंधिया गयीं। राजा को बड़ा अचरज हुआ। उसने योगी से पूछा, “आप यह लाल मुझे रोज़ क्यों दे जाते हैं?”

योगी ने जवाब दिया, “महाराज! राजा, गुरु, ज्योतिषी, वैद्य और बेटी, इनके घर कभी खाली हाथ नहीं जाना चाहिए।”

राजा ने भण्डारी को बुलाकर पीछे के सब फल मँगवाये। तुड़वाने पर सबमें से एक-एक लाल निकला। इतने लाल देखकर राजा को बड़ा हर्ष हुआ। उसने जौहरी को बुलवाकर उनका मूल्य पूछा। जौहरी बोला, “महाराज, ये लाल इतने कीमती हैं कि इनका मोल करोड़ों रुपयों में भी नहीं आँका जा सकता। एक-एक लाल एक-एक राज्य के बराबर है।”

यह सुनकर राजा योगी का हाथ पकड़कर गद्दी पर ले गया। बोला, “योगीराज, आप सुनी हुई बुरी बातें, दूसरों के सामने नहीं कही जातीं।”

राजा उसे अकेले में ले गया। वहाँ जाकर योगी ने कहा, “महाराज, बात यह है कि गोदावरी नदी के किनारे मसान में मैं एक मंत्र सिद्ध कर रहा हूँ। उसके सिद्ध हो जाने पर मेरा मनोरथ पूरा हो जायेगा। तुम एक रात मेरे पास रहोगे तो मंत्र सिद्ध हो जायेगा। एक दिन रात को हथियार बाँधकर तुम अकेले मेरे पास आ जाना।”

राजा ने कहा “अच्छी बात है।”

इसके उपरान्त योगी दिन और समय बताकर अपने मठ में चला गया।

वह दिन आने पर राजा अकेला वहाँ पहुँचा। योगी ने उसे अपने पास बिठा लिया। थोड़ी देर बैठकर राजा ने पूछा, “महाराज, मेरे लिए क्या आज्ञा है?”

योगी ने कहा, “राजन्, “यहाँ से दक्षिण दिशा में दो कोस की दूरी पर मसान में एक सिरस के पेड़ पर एक मुर्दा लटका है। उसे मेरे पास ले आओ, तब तक मैं यहाँ पूजा करता हूँ।”

यह सुनकर राजा वहाँ से चल दिया। बड़ी भयंकर रात थी। चारों ओर अँधेरा फैला था। पानी बरस रहा था। भूत-प्रेत शोर मचा रहे थे। साँप आ-आकर पैरों में लिपटते थे। लेकिन राजा हिम्मत से आगे बढ़ता गया। जब वह मसान में पहुँचा तो देखता क्या है कि शेर दहाड़ रहे हैं, हाथी चिंघाड़ रहे हैं, भूत-प्रेत आदमियों को मार रहे हैं। राजा बेधड़क चलता गया और सिरस के पेड़ के पास पहुँच गया। पेड़ जड़ से फुनगी तक आग से दहक रहा था। राजा ने सोचा, हो-न-हो, यह वही योगी है, जिसकी बात देव ने बतायी थी। पेड़ पर रस्सी से बँधा मुर्दा लटक रहा था। राजा पेड़ पर चढ़ गया और तलवार से रस्सी काट दी। मुर्दा नीचे किर पड़ा और दहाड़ मार-मार कर रोने लगा।

राजा ने नीचे आकर पूछा, “तू कौन है?”

राजा का इतना कहना था कि वह मुर्दा खिलखिकर हँस पड़ा। राजा को बड़ा अचरज हुआ। तभी वह मुर्दा फिर पेड़ पर जा लटका। राजा फिर चढ़कर ऊपर गया और रस्सी काट, मुर्दे का बगल में दबा, नीचे आया। बोला, “बता, तू कौन है?”

मुर्दा चुप रहा।

तब राजा ने उसे एक चादर में बाँधा और योगी के पास ले चला। रास्ते में वह मुर्दा बोला, “मैं बेताल हूँ। तू कौन है और मुझे कहाँ ले जा रहा है?”

राजा ने कहा, “मेरा नाम विक्रम है। मैं धारा नगरी का राजा हूँ। मैं तुझे योगी के पास ले जा रहा हूँ।”

बेताल बोला, “मैं एक शर्त पर चलूँगा। अगर तू रास्ते में बोलेगा तो मैं लौटकर पेड़ पर जा लटकूँगा।”

राजा ने उसकी बात मान ली। फिर बेताल बोला, “ पण्डित, चतुर और ज्ञानी, इनके दिन अच्छी-अच्छी बातों में बीतते हैं, जबकि मूर्खों के दिन कलह और नींद में। अच्छा होगा कि हमारी राह भली बातों की चर्चा में बीत जाये। मैं तुझे एक कहानी सुनाता हूँ। ले, सुन।

*उदयपुर का त्याग और कुमलमेर को राजधानी बनाना*

*उदयपुर का त्याग और कुमलमेर को राजधानी बनाना*
शक्तिसिंह के निर्वासन के बाद राणा प्रताप ने सभी सामंतों और राजपूत योद्धाओं की एक सभा बुलाई और सबको एक साथ सम्भोधित करते हुए कहा की “मेवाड़ के समस्त सामंत, बहादुर, और नागरिकों आज का दिन हम सबके लिए आत्ममंथन का दिन है, संकल्प का दिन है, हम सभी जानते है की साम्राज्यवादी ताकते हम सभी को नष्ट कर हमारी संस्कृति को छिन-भिन्न कर देना चाहती है, हमारा बस अपराध इतना है की हमने किसी की अधीनता स्वीकार नहीं की है, आज पूरा भारतवर्ष विदेश से आये हुए मुस्लिम साम्राज्य के आगे घुटने टेक दिए है, हमारे राजपूताने के कई राजाओं ने भी उनकी अधीनता स्वीकार कर ली है, पर आजतक हमारे किसी भी पूर्वजों ने किसी के सामने अपना सर नहीं झुकाया है, हमारे हर पूर्वजों ने अपना सर झुकाने के स्थान में अपना सर कटाने पर विश्वास किया है.

मुग़ल हमारी ताकत और राजपूतों की आन बाण और शान से भली भांति परिचित है, परन्तु राजपूतों के ख़ून में जो सबसे बड़ी कमजोरी है वो है एक दुसरे से जलना, उन्हें निचा दिखाना, और हर संभव एक दुसरे को नष्ट करना. विदेशी शक्ति सदैव से इन कमजोरियों का लाभ उठा कर राजपूतों के पीठ पर वार किया है. अपनों के साथ विश्वासघात ही समाराज्य्वादियों की जड़ों को हमारी धरती में गहराइ तक ले गयी है.

इन विदेशियों से हाथ मिलाने की इच्छा इसलिए नहीं होती है क्योंकि जब जब राजपूतों ने इनसे हाथ मिलाया है हमारे घरों की स्त्रियों की मान, मर्यादा खतरे में पड़ी है, इनके सरदार जब चाहे हमारे घरों से किसी सामान की भांति हमारी घरों के स्त्रियों को ले जाते है, और आप इस बात से बिलकुल भी अनजान नहीं है की आज जो दिल्ली का राजगद्दी में बैठा शाषण कर रहा है, वो किस तरह से वहां के हिन्दू स्त्रियों को आगरा के बाजार में खुले आम बेच रहा है.

इतिहस साक्षी है की, राजपूत स्त्रियाँ इनकी हवास का शिकार बनने से बचने के लिए जलती चिताओं में अपने कुंदन से सुन्दर तनो को जीवित जलाकर राख किया है, महारानी पदिमनी जैसी असंख्य राजपूत ललनाये अपनी सोने से शारीर को आग्नि में भस्म कर चुकी है, बाप्पा रावल के वंशज भीम सिंह से लेकर महाराणा सांगा तक असंख्य वीर राजपूतों ने हमारी इस धरती को विदेशियों से बचाने के लिए अपनी प्राणों की बलि दे दी है.

हमें लड़ाकू कौम कहा जाता है, और हम इस बात को स्वीकार करते है की हम लड़ाकू है, और हमें इस बात पर गर्व है की हम एक लड़ाकू कौम है पर लड़ाकू होने का ये अर्थ नहीं है की हम आक्रान्ता हो जाये, अपने ही भाइयों को नीचा दिखाने और उनका हक़ छिनने से हममें और उन मुगलों में क्या अंतर रह जायेगा.

आप लोगो ने मुझे मेवाड़ का राणा बनाकर मुझपर बहुत भरी दायित्व दाल दिया है, परन्तु चित्तौड़ अभी भी उन मुगलों के अधीन है, मेरा सबसे पहला कर्तव्य यही है की चितौड़ को मुगलों से छुड़ा कर राजपूती शान को फिर से स्थापित करूँ और मुगलों को ये सन्देश पहुंचा दू की राजपूतों से टकरा कर वो भी चैन से नहीं सो सकते है राजपूत मरने से नहीं डरते वो तो युद्ध में मर कर अमर हो जाया करते है.

परन्तु एक बात ध्यान रहे मैं अकेला कुछ भी नहीं हूँ, यदि आप लोगो की फौलादी ताकत मेरे साथ है तो मैं फौलाद हूँ,  आज मेरे साथ साथ आपलोग भी शपथ लीजिये की जब तक हम चितौड़ को मुक्त नहीं करा लेंगे तब तक हम सब सोने चांदी के बर्तनों में भोजन नहीं करेंगे, जीवन को भोगों में नष्ट नहीं होने देंगे, हम आपसी वैर भाव, और अन्य सभी संकिर्ताओं को अपने से दूर रखेंगे, और इस तरह महाराणा प्रताप के साथ सभी योद्धाओं, सरदारों और नागरिकों ने सपथ ली.

शपथ के बाद ही मेवाड़ क्षेत्र में नई हलचल आरम्भ हो गयी, राजपूतों ने सिर और मुछ के बालों को कटवाने बंद कर दिए. सादे जीवन का प्रण लेकर अपने महाराणा को हर संभव सहयोग देने लगे.

इसके साथ ही उदयपुर जैसे सुन्दर नगरी को त्याग कर, कुमलमेर की दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपनी राजधानी बनाने का निर्णय महाराणा प्रताप और उनके विवेकशील सरदारों ने लिया. राणा प्रताप जानते थे की उदयपुर समतल स्थान में बसी नगरी है, और यहाँ भारी मुग़ल सेना कभी भी उनपर आक्रमण कर उनपर अपना अधिकार जमा सकती है, इसके साथ ही राजपूतों के संख्या कम होने के कारण पहाड़ियों के बीच उन्हें लड़ना सदैव से अनुकूल रहा है.

देखते ही देखते उदयपुर वीरान हो गया, और महाराणा के इशारे में उदयपुर निवासी कुमलमेर में जाकर बसने लगे.  राणा प्रताप ने उदयपुर छोड़ने का आदेश इतनी शक्ति से दे रखा था की जो भी उदयपुर की सीमा में प्रवेश करता उसे मृत्यु दंड दिया जाता. कुछ ही समय में कुमलमेर आबाद और उदयपुर आजाद हो गया. कुमलमेर में आराम का जीवन नहीं था, कठोर जीवन देकर महाराणा प्रताप अपने नागरिकों को ये एहसास दिलवाना चाहते थे की उनका जन्म भोग-विलास के लिए नहीं बल्कि अपनी धरती को मुगलों से आजाद करवाने के लिए हुआ है.

महाराणा प्रताप ने एक विशाल किला कुमलमेर में बनवाया, और सुरक्षा का पूरा इंतजाम किया. राजपूत युवकों को युद्ध करने का अभ्यास करवाया जाता था, अपनी मातृभूमि में मर मिटने के लिए तैयार रहने का मनोबल दिया जाता था. स्त्रियाँ भी अपने भाइयों, बेटों और पत्तियों को उनकी तैयारी में पूरा सहयोग करती.

मेवाड़ की समस्त प्रजा अपनी आय में से कटौती कर सुरक्षा व्यवस्था के लिए धन जूटा कर देती, जन जन में महाराणा प्रताप ने ये मन्त्र फूंक दिया था की, ना कोई राजा है न ही कोई प्रजा है, जब तक हम अपनी खोई हुई जमीन वापस नहीं ले लेते तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते ह

राणा प्रताप में मुगलों से अपनी मातृभूमि लेने का लक्ष्य था वही उनके दोनों भाइयों ने उन्हें बहुत निराश किया. उनका छोटा भाई जगमाल जिसे हटा कर प्रताप को राणा बनाया गया कभी चैन से नहीं बैठा, राणा प्रताप ने बहुत कोशिश की कि जगमाल को पूरी प्रतिष्ठा दी जाय पर जगमाल उनसे हमेशा असंतुष्ट और नाराज ही रहता वो अपने आप को अपमानित समझता.

वो अधिक दिन तक मेवाड़ में नहीं रह सका और उसने मेवाड़ त्याग कर अपने परिवार समेत जहाजपुर चला गया. जहाजपुर आज्मेर के सुबेदारी की अधीन था. अजमेर के सूबेदार ने उसकी रहने की व्यवस्था कर दी.

कुछ दिन बाद जगमाल अकबर से मिला. अकबर विस्तारवादी था वह हमेशा से राजपूतों को अपने साथ मिला कर उन्हें अधीन करना चाहता था. वह जनता था की पुरे भारतवर्ष में राजपूत कौम ही सबसे बहादुर और लड़ाकू है, इसलिए ये कौम जिसके पक्ष में रहेगी वही भारत में राज कर पायेगा.

उसे पता लगा की राणा प्रताप का भाई उसकी शरण में आया है, जिसे राज गद्दी से हटाकर प्रताप मेवाड़ का राजा बना है. तो उसे हार्दिक प्रसन्नता हुई. जगमाल के पिता उदय सिंह से चितौड़ का किला छींनते समय वो राजपूतों के बहुबल से परिचित हो चूका था, उसके विशाल मुग़ल सेना ने मुट्ठी भर राजपूतों से चितौड़ का किला जितने में छ: महीने का वक़्त लगा था.

अब राणा प्रताप का छोटा भाई जगमाल उसके सामने खड़ा था, वह प्रताप से घृणा करता था, ऐसे व्यक्ति को शरण देकर अकबर राजपूतों की एकता की कमर तोड़ देना चाहता था. इसलिए उसने जगमाल का स्वागत किया और उपहार स्वरूप जहाजपुर का परगना दे दिया. जगमाल ने अकबर को वचन दिया की वह सदैव अकबर की अधीनता में रहेगा और यथा संभव सहयोग देगा.

उसी समय एक घटना और हो गयी सिरोही राज्य के उत्तराधिकार को लेकर देवड़ा सुरतान और देवड़ा बीजा में टन गयी, दोनो को ही अपनी शक्ति में भरोसा नहीं था इसलिए वो सम्राट अकबर के मित्र राय सिंह के पास पहुंचे.

राय सिंह ने दोनो की बात सुनी और फिर देवड़ा सूरतान का पक्ष ले लिया, उसने सुरतन से शर्त रखी की वह सिरोही का आधा राज्य अगर अकबर को दे दे , तो वह उसकी सहायता करेगा. सुरतान तैयार हो गया. उसने आधा सिरोही राज्य अकबर को दे दिया. और अकबर ने तुरंत ही वह सिरोही राज्य जगमाल को दे दिया.

राव सुरतान को ये बात बहुत बुरी लगी, उसने जगमाल को चुनौती दे डाली, परन्तु देवड़ा बीजा उसके उसके साथ हो गया और राव सुरतान का शक्ति संतुलन बिगड़ गया.उसे सिरोही छोड़ना पड़ा.वह भाग कर आबू चला गया.

बाद में देवड़ा बीजा ने जगमाल का साथ छोड़ दिया अब जगमाल अकेला पड़ गया. राव सुरतान ने मौका देख कर जगमाल पर आक्रमण कर दिया. इस युद्ध में जगमाल मारा गया. रायसिंह की भी इस युद्ध में मृत्यु हो गयी.

अकबर की कूटनिति ये थी की वह राजपूतों को अपने अधीन करके उनके बल पर पुरे भारतवर्ष पर शाषण करना चाहता था, अपनी इस योजना को पूरा करने के लिए वह राजपूतों पर सदैव दबाव बनाये रहता था, उन्हें आपस में लड़ा कर नष्ट करने से भी वह कभी नहीं चुकता था, वह राजपूतों की कमजोरियों को अच्छी तरह से समझ गया था, इसी कारण से उन्हें एक एक कर के झुकाने और बर्बाद करने में सफल रहा.

सिरोही का आधा राज्य देवड़ा सुरतान से लेकर जगमाल को देने के बाद अकबर ने अपना पल्ला झाड़ लिया और राजपूतों के बीच लड़ने के लिए हड्डी फेंक दी, सिरोही का राज्य उनकी आपसी फूट को हवा देने का माध्यम बन गया. राजपूतों के आपस में अनेक युद्ध हुए और जगमाल, रायसिंह और व कोलिसिंह आदि अनेक राजपूत योद्धा अकबर के मकसद को पूरा करने में काम आये

Sunday, February 16, 2020

Fhesala: bhim sahani ki fhesale ki kahaniya


उन दिनों हीरालाल और मैं अक्सर शाम को घूमने जाया करते थे. शहर की गलियां लांघ कर हम शहर के बाहर खेतों की ओर निकल जाते थे. हीरालाल को बातें करने का शौक़ था और मुझे उसकी बातें सुनने का. वह बातें करता तो लगता जैसे ज़िंदगी बोल रही है. उसके क़िस्से-कहानियों का अपना फ़लसफ़ाना रंग होता. लगता जो कुछ किताबों में पढ़ा है सब ग़लत है, व्यवहार की दुनिया का रास्ता ही दूसरा है. हीरालाल मुझसे उम्र में बहुत बड़ा तो नहीं है लेकिन उसने दुनिया देखी है, बड़ा अनुभवी और पैनी नज़र का आदमी है.
उस रोज़ हम गलियां लांघ चुके थे और बाग़ की लंबी दीवार को पार कर ही रहे थे जब हीरालाल को अपने परिचय का एक आदमी मिल गया. हीरालाल उससे बगलगीर हुआ, बड़े तपाक से उससे बतियाने लगा, मानों बहुत दिनों बाद मिल रहा हो.
फिर मुझे संबोधन करके बोला,'आओ, मैं तुम्हारा परिचय कराऊं... यह शुक्ला जी हैं...'
और गद‌गद आवाज़ में कहने लगा,'इस शहर में चिराग ले कर भी ढूंढ़ने जाओ तो इन-जैसा नेक आदमी तुम्हें नहीं मिलेगा?'
शुक्ला जी के चेहरे पर विनम्रतावश हल्की-सी लाली दौड़ गई. उन्होंने हाथ जोड़े और एक धीमी-सी झेंप-भरी मुस्कान उनके होंठों पर कांपने लगी.
'इतना नेकसीरत आदमी ढूंढ़े भी नहीं मिलेगा. जिस ईमानदारी से इन्होंने ज़िंदगी बिताई है मैं तुम्हें क्या बताऊं. यह चाहते तो महल खड़े कर लेते, लाखों रुपया इकट्ठा कर लेते...'
शुक्ला जी और ज़्यादा झेंपने लगे. तभी मेरी नज़र उनके कपड़ों पर गई. उनका लिबास सचमुच बहुत सादा था, सस्ते से जूते, घर का धुला पाजामा, लंबा बंद गले का कोट और खिचड़ी मूंछें. मैं उन्हें हेड क्लर्क से ज़्यादा का दर्जा नहीं दे सकता था.
'जितनी देर उन्होंने सरकारी नौकरी की, एक पैसे के रवादार नहीं हुए. अपना हाथ साफ़ रखा. हम दोनों एक साथ ही नौकरी करने लगे थे. यह पढ़ाई के फ़ौरन ही बाद कंपटीशन में बैठे थे और क़ामयाब हो गए थे और जल्दी ही मजिस्ट्रेट बन कर फ़िरोज़पुर में नियुक्त हुए थे. मैं भी उन दिनों वहीं पर था...'
मैं प्रभावित होने लगा. शुक्ला जी अभी लजाते हाथ जोड़े खड़े थे और अपनी तारीफ़ सुन कर सिकुड़ते जा रहे थे. इतनी-सी बात तो मुझे भी खटकी कि साधारण कुर्ता-पाजामा पहनने वाले लोग आम तौर पर मजिस्ट्रेट या जज नहीं होते. जज होता तो कोट-पतलून होती, दो-तीन अर्दली आसपास घूमते नज़र आते. कुर्ता-पाजामा में भी कभी कोई न्यायाधीश हो सकता है?
इस झेंप-विनम्रता-प्रशंसा में ही यह बात रह गई कि शुक्ला जी अब कहां रहते हैं, क्या रिटायर हो गए हैं या अभी भी सरकारी नौकरी करते हैं और उनका कुशल-क्षेम पूछ कर हम लोग आगे बढ़ गए.
ईमानदार आदमी क्यों इतना ढीला-ढाला होता है, क्यों सकुचाता-झेंपता रहता है, यह बात कभी भी मेरी समझ में नहीं आई. शायद इसलिए कि यह दुनिया पैसे की है. जेब में पैसा हो तो आत्म-सम्मान की भावना भी आ जाती है, पर अगर जूते सस्ते हों और पाजामा घर का धुला हो तो दामन में ईमानदारी भरी रहने पर भी आदमी झेंपता-सकुचाता ही रहता है. शुक्ला जी ने धन कमाया होता, भले ही बेईमानी से कमाया होता, तो उनका चेहरा दमकता, हाथ में अंगूठी दमकती, कपड़े चमचम करते, जूते चमचमाते, बात करने के ढंग से ही रौब झलकता.
ख़ैर, हम चल दिए. बाग़ की दीवार पीछे छूट गई. हमने पुल पार किया और शीघ्र ही प्रकृति के विशाल आंगन में पहुंच गए. सामने हरे-भरे खेत थे और दूर नीलिमा की झीनी चादर ओढ़े छोटी-छोटी पहाड़ियां खड़ी थीं. हमारी लंबी सैर शुरू हो गई थी.
इस माहौल में हीरालाल की बातों में अपने आप ही दार्शनिकता की पुट आ जाती है. एक प्रकार की तटस्थता, कुछ-कुछ वैराग्य-सा, मानो प्रकृति की विराट पृष्ठभूमि के आगे मानव-जीवन के व्यवहार को देख रहा हो.
थोड़ी देर तक तो हम चुपचाप चलते रहे, फिर हीरालाल ने अपनी बांह मेरी बांह में डाल दी और धीमे से हंसने लगा.
'सरकारी नौकरी का उसूल ईमानदारी नहीं है, दफ़्तर की फ़ाइल है. सरकारी अफ़सर को दफ़्तर की फ़ाइल के मुताबिक़ चलना चाहिए.'
हीरालाल मानो अपने आप से बातें कर रहा था. वह कहता गया,‍'इस बात की उसे फ़िक्र नहीं होनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, कौन क्या कहता है. बस, यह देखना चाहिए कि फ़ाइल क्या कहती है.'
'यह तुम क्या कह रहे हो?' मुझे हीरालाल का तर्क बड़ा अटपटा लगा,'हर सरकारी अफ़सर का फ़र्ज़ है कि वह सच की जांच करे, फ़ाइल में तो अंट-संट भी लिखा रह सकता है.'
'न, न, न, फ़ाइल का सच ही उसके लिए एकमात्र सच है. उसी के अनुसार सरकारी अफ़सर को चलना चाहिए, न एक इंच इधर, न एक इंच उधर. उसे यह जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि सच क्या है और झूठ क्या है, यह उसका काम नहीं...'
'बेगुनाह आदमी बेशक पिसते रहें?'
हीरालाल ने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया. इसके विपरीत मुझे इन्हीं शुक्ला जी का क़िस्सा सुनाने लगा. शायद इन्हीं के बारे में सोचते हुए उसने यह टिप्पणी की थी.
'जब यह आदमी जज हो कर फ़ीरोज़पुर में आया, तो मैं वहीं पर रहता था. यह उसकी पहली नौकरी थी. यह आदमी सचमुच इतना नेक, इतना मेहनती, इतना ईमानदार था कि तुम्हें क्या बताऊं. सारा वक़्त इसे इस बात की चिंता लगी रहती थी कि इसके हाथ से किसी बेगुनाह को सज़ा न मिल जाए. फ़ैसला सुनाने से पहले इससे भी पूछता, उससे भी पूछता कि असलियत क्या है, दोष किसका है, गुनहगार कौन है? मुलजिम तो मीठी नींद सो रहा होता और जज की नींद हराम हो जाती थी. ...अगर मैं भूल नहीं करता तो अपनी मां को इसने वचन भी दिया था कि वह किसी बेगुनाह को सज़ा नहीं देगा. ऐसी ही कोई बात उसने मुझे सुनाई भी थी.
'छोटी उम्र में सभी लोग आदर्शवादी होते हैं. वह जमाना भी आदर्शवाद का था,' मैंने जोड़ा.
पर हीरालाल कहे जा रहा था,'आधी-आधी रात तक यह मिस्लें पढ़ता और मेज से चिपटा रहता. उसे यही डर खाए जा रहा था कि उससे कहीं भूल न हो जाए. एक-एक केस को बड़े ध्यान से जांचा करता था.'

Hindi Story Faisala by Bhishma Sahani

फिर यों हाथ झटक कर और सिर टेढ़ा करके मानो इस दुनिया में सही क्या है और ग़लत क्या है, इसका अंदाज़ा लगा पाना कभी संभव ही न हो, हीरालाल कहने लगा,'उन्हीं दिनों फ़ीरोज़पुर के नज़दीक एक क़स्बे में एक वारदात हो गई और केस ज़िला कचहरी में आया. मामूली-सा केस था. क़स्बे में रात के वक़्त किसी राह-जाते मुसाफ़िर को पीट दिया गया था और उसकी टांग तोड़ दी गई थी. पुलिस ने कुछ आदमी हिरासत में ले लिए थे और मुक़दमा इन्हीं शुक्ला जी की कचहरी में पेश हुआ था. आज भी वह सारी घटना मेरी आंखों के सामने आ गई है... अब जिन लोगों को हिरासत में ले लिया गया था उनमें इलाक़े का ज़िलेदार और उसका जवान बेटा भी शामिल थे. पुलिस की रिपोर्ट थी कि ज़िलेदार ने अपने लठैत भेज कर उस राहगीर को पिटवाया है. ज़िलेदार खुद भी पीटनेवालों में शामिल था. साथ में उसका जवान बेटा और कुछ अन्य लठैत भी थे. मामला वहां रफा-दफा हो जाता अगर उस राहगीर की टांग न टूट गई होती. मामूली मारपीट की तो पुलिस परवाह नहीं करती लेकिन इस मामले को तो पुलिस नजर‍अंदाज़ नहीं कर सकती थी. ख़ैर, गवाह पेश हुए, पुलिस ने भी मामले की तहक़ीक़ात की और पता यही चला कि ज़िलेदार ने उस आदमी को पिटवाया है, और पीटनेवाले, राहगीर को अधमरा समझ कर छोड़ गए थे.
'तीन महीने तक केस चलता रहा.' हीरालाल कहने लगा,'केस में कोई उलझन, कोई पेचीदगी नहीं थी, पर हमारे शुक्ल जी को चैन कहां? इधर ज़िलेदार के हिरासत में लिए जाने पर, हालांकि बाद में उसे ज़मानत पर छोड़ दिया गया था, क़स्बे-भर में तहलका-सा मच गया था. ज़िलेदार को तो तुम जानते हो ना. ज़िलेदार का काम मालगुजारी उगाहना होता है और गांव में उसकी बड़ी हैसियत होती है. यों वह सरकारी कर्मचारी नहीं होता.
'ख़ैर! तो जब फ़ैसला सुनाने की तारीख़ नज़दीक आई तो शुक्ला जी की नींद हराम. कहीं ग़लत आदमी को सज़ा न मिल जाए. कहीं कोई बेगुनाह मारा न जाए. उधर पुलिस तहक़ीक़ात करती रही थी, इधर शुक्ला जी ने अपनी प्राइवेट तहक़ीक़ात शुरू कर दी. इससे पूछ, उससे पूछ. जिस दिन फ़ैसला सुनाया जाना था उससे एक दिन पहले शाम को यह सज्जन उस क़स्बे में जा पहुंचे और वहां के तहसीलदार से जा मिले. वह उनकी पुरानी जान-पहचान का था. उन्होंने उससे भी पूछा कि भाई, बताओ भाई, अंदर की बात क्या है, तुम तो क़स्बे के अंदर रहते हो, तुमसे तो कुछ छिपा नहीं रहता है. अब जब तहसीलदार ने देखा कि ज़िला-कचहरी का जज चल कर उसके घर आया है, और जज का बड़ा रुतबा होता है, उसने अंदर की सही-सही बात शुक्ला जी को बता दी. शुक्ला जी को पता चल गया कि सारी कारस्तानी क़स्बे के थानेदार की है, कि सारी शरारत उसी की है. उसकी कोई पुरानी अदावत ज़िलेदार के साथ थी और वह ज़िलेदार से बदला लेना चाहता था. एक दिन कुछ लोगों को भिजवा कर एक राह-जाते मुसाफ़िर को उसने पिटवा दिया, उसकी टांग तुड़वा दी और ज़िलेदार और उसके बेटे को हिरासत में ले लिया. फिर एक के बाद एक झूठी गवाही. अब क़स्बे के थानेदार की मुख़ालफ़त कौन करे? किसकी हिम्मत? तहसीलदार ने शुक्ला जी से कहा कि मैं कुछ और तो नहीं जानता, पर इतना ज़रूर जानता हूं कि ज़िलेदार बेगुनाह है, उसका इस पिटाई से दूर का भी वास्ता नहीं.
'वहां से लौट कर शुक्ला दो-एक और जगह भी गया. जहां गया, वहां पर उसने ज़िलेदार की तारीफ़ सुनी. जब शुक्ला जी को यक़ीन हो गया कि मुक़दमा सचमुच झूठा है तो उसने घर लौट कर अपना पहला फ़ैसला फ़ौरन बदल दिया और दूसरे दिन अदालत में अपना नया फ़ैसला सुना दिया और ज़िलेदार को बिना शर्त रिहा कर दिया.
'उसी दिन वह मुझे क्लब में मिला. वह सचमुच बड़ा ख़ुश था. उसे बहुत दिन बाद चैन नसीब हुआ था. बार-बार भगवान का शुक्र कर रहा था कि वह अन्याय करते-करते बच गया, वरना उससे बहुत बड़ा पाप होने जा रहा था. 'मुझसे बहुत बड़ी भूल हो रही थी. यह तो अचानक ही मुझे सूझ गया और मैं तहसीलदार से मिलने चला गया. वरना मैंने तो अपना फ़ैसला लिख भी डाला था, उसने कहा.'
हीरालाल की बात सुन कर मैं सचमुच प्रभावित हुआ. अब मेरी नजरों में शुक्ला सस्ते जूतों और मैलों कपड़ों में एक ईमानदार इंसान ही नहीं था बल्कि एक गुर्देवाला, ज़िंदादिल और जीवटवाला व्यक्ति था. उसे बाग़ की दीवार के पास खड़ा देख कर जो अनुकंपा-सी मेरे दिल में उठी थी वह जाती रही और मेरा दिल उसके प्रति श्रद्धा से भर उठा. हमें सचमुच ऐसे ही लोगों की ज़रूरत है जो मामले की तह तक जाएं और निर्दोष को आंच तक न आने दें.
खेतों की मेड़ों के साथ-साथ चलते हम बहुत दूर निकल आए थे. वास्तव में उस सफ़ेद बुत तक जा पहुंचे थे जहां से हम अक्सर दूसरे रास्ते से मुड़ने लगते.
'फिर जानते हो क्या हुआ?' हीरालाल ने बड़ी आत्मीयता से कहा.
'कुछ भी हुआ हो हीरालाल, मेरे लिए इतना ही काफ़ी है कि यह आदमी जीवटवाला और ईमानदार है. अपने उसूल का पक्का रहा.'
'सुनो, सुनो, एक उसूल ज़मीर का होता है तो दूसरा फ़ाइल का.' हीरालाल ने दानिशमंदों की तरह सिर हिलाया और बोला,'आगे सुनो... फ़ैसला सुनाने की देर थी कि थानेदार तो तड़प उठा. उसे तो जैसे सांप ने डस लिया हो. चला था ज़िलेदार को नीचा दिखाने, उल्टा सारे क़स्बे में लोग उसकी लानत-मलामत करने लगे. चारों ओर थू-थू होने लगी. उसे तो उल्टे लेने-के-देने पड़ गए थे.
'पर वह भी पक्का घाघ था उसने आव देखा न ताव, सीधा डिप्टी-कमिश्नर के पास जा पहुंचा. जहां डिप्टी-कमिश्नर ज़िले का हाक़िम होता है, वहां थानेदार अपने क़स्बे का हाक़िम होता है. डिप्टी-कमिश्नर से मिलते ही उसने हाथ बांध लिए, कि हुजूर मेरी इस इलाक़े से तबदीली कर दी जाए. डिप्टी-कमिश्नर ने कारण पूछा तो बोला, हुजूर, इस इलाके को क़ाबू में रखना बड़ा मुश्क़िल काम है. यहां चोर-डकैत बहुत हैं, बड़े मुश्क़िल से क़ाबू में रखे हुए हूं. मगर हुजूर, जहां ज़िले का जज ही रिश्वत ले कर शरारती लोगों को रिहा करने लगे, वहां मेरी कौन सुनेगा. क़स्बे का निज़ाम चौपट हो जाएगा. और उसने अपने ढंग से सारा क़िस्सा सुनाया. डिप्टी-कमिश्नर सुनता रहा. उसके लिए यह पता लगाना कौन-सा मुश्क़िल काम है कि किसी अफ़सर ने रिश्वत ली है या नहीं ली है, कब ली है और किससे ली है. थानेदार ने साथ में यह भी जोड़ दिया कि फ़ैसला सुनाने के एक दिन पहले जज साहब हमारे क़स्बे में भी तशरीफ़ लाए थे. डिप्टी-कमिश्नर ने सोच-विचार कर कहा कि अच्छी बात है, हम मिस्ल देखेंगे, तुम मुकद्दमे की फ़ाइल मेरे पास भिजवा दो. थानेदार की बांछें खिल गईं. वह चाहता ही यही था, उसने झट से फिर हाथ बांध दिए, कि हुजूर एक और अर्ज है. मिस्ल पढ़ने के बाद अगर आप मुनासिब समझें तो इस मुक़दमे की हाईकोर्ट में अपील करने की इजाज़त दी जाए.
'आख़िर वही हुआ जिसकी उम्मीद थी. डिप्टी-कमिश्नर ने मुक़दमे की मिस्ल मंगवा ली. शुरू से आख़िर तक वह मुकद्दमे के काग़ज़ात देख गया, सभी गवाहियां देख गया, एक-एक क़ानूनी नुक़्ता देख गया और उसने पाया कि सचमुच फ़ैसला बदला गया है. काग़ज़ों के मुताबिक़ तो ज़िलेदार मुजरिम निकलता था. मिस्ल पढ़ने के बाद उसे थानेदार की यह मांग जायज लगी कि हाईकोर्ट में अपील दायर करने की इजाज़त दी जाए. चुनाचे उसने इजाजत दे दी.
'फिर क्या? शक की गुंजाइश ही नहीं थी. डिप्टी कमिश्नर को भी शुक्ला की ईमानदारी पर संदेह होने लगा...'
कहते-कहते हीरालाल चुप हो गया. धूप कब की ढल चुकी थी और चारों ओर शाम के अवसादपूर्ण साए उतरने लगे थे. हम देर तक चुपचाप चलते रहे. मुझे लगा मानो हीरालाल इस घटना के बारे में न सोच कर किसी दूसरी ही बात के बारे में सोचने लगा है.
'ऐसे चलती है व्यवहार की दुनिया', वह कहने लगा,'मामला हाईकोर्ट में पेश हुआ और हाईकोर्ट ने ज़िला-अदालत के फ़ैसले को रद्द कर दिया. ज़िलेदार को फिर से पकड़ लिया गया और उसे तीन साल की कड़ी कैद की सज़ा मिल गई. हाईकोर्ट ने अपने फ़ैसले मे शुक्ला पर लापरवाही का दोष लगाया और उसकी न्यायप्रियता पर संदेह भी प्रकट किया.
'इस एक मुक़द्दमे से ही शुक्ला का दिल टूट गया. उसका मन ऐसा खट्टा हुआ कि उसने ज़िले से तबदीली करवाने की दरख्वास्त दे दी और सच मानो, उस एक फ़ैसले के कारण ही वह ज़िले-भर में बदनाम भी होने लगा था. सभी कहने लगे, रिश्वत लेता है. बस, इसके बाद पांच-छह साल तक वह उसी महकमे में घिसटता रहा, इसका प्रमोशन रुका रहा. इसीलिए कहते हैं कि सरकारी अफ़सर को फ़ाइल का दामन कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए, जो फ़ाइल कहे, वही सच है, बाक़ी सब झूठ है...'
अंधेरा घिर आया था और हम अंधेरे में ही धीमे-धीमे शहर की ओर लौटने लगे थे. मैं समझ सकता हूं कि शुक्ला के दिल पर क्या बीती होगी और वह कितना हतबुद्धि और परेशान रहा होगा. वह जो न्यायप्रियता का वचन अपनी मां को दे कर आया था.
'फिर? फिर क्या हुआ? जजी छोड़ कर शुक्ला जी कहां गए?'
'अध्यापक बन गया, और क्या? एक कालिज में दर्शनशास्त्र पढ़ाने लगा. सिद्धांतों और आदर्शों की दुनिया में ही एक ईमानदार आदमी इत्मीनान से रह सकता है. बड़ा क़ामयाब अध्यापक बना. ईमानदारी का दामन इसने अभी भी नहीं छोड़ा है. इसने बहुत-सी किताबें भी लिखी हैं. बढ़िया से बढ़िया किताबें लिखता है, पर व्यवहार की दुनिया से दूर, बहुत 

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